अंशुल शर्मा। अक्सर कुछ लोग पूछते हैं कि हम किस ग्रह का दान करें?उपाय के नाम पर या फल की इच्छा से दिया गया दान किसी भी प्रकार से दान की श्रेणी में नहीं आता।वो सिर्फ एक सौदा है, और कुछ नहीं।कर्ण जैसा दानवीर कोई नहीं हुआ, कर्ण ने अपनी प्रिय से प्रिय चीज दान में दे दी।एक बार अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण जी से पूछा कि दान देने में श्रेष्ठ मैं हूँ या कर्ण है?भगवादानदान करना हो तो दानवीर कर्ण जैसा करो।न श्रीकृष्ण जी ने कहा कर्ण श्रेष्ठ है। अर्जुन ने इसका कारण पूछा।श्रीकृष्ण जी ने सोने के 2 पहाड़ बना दिये और अर्जुन से कहा कि गांव के लोगों को 2 पहाड़ सोना दान करो। अर्जुन ने सबको कहा कि लाइन में लगो और एक एक करके आओ। अर्जुन ने तोल तोल के सोना दान करना शुरू कर दिया।लोग अर्जुन के जयकारे लगाते तो अर्जुन खुशी मारे फूला न समाता।सोना तोलते तोलते बाँटकर अर्जुन पसीने पसीने हो गया लेकिन जयकारे सुन के सोना बाँटने में लगा रहा।जब अर्जुन थक हार गया तो बोला कि हे केशव मैंने बहुत सा सोना दान कर दिया हैमेरे जैसा दानी कर्ण कभी नहीं हो सकता है।तब श्रीकृष्ण जी ने कर्ण से कहा कि ये 2 पहाड़ सोना लोगों को दान कर दो।कर्ण ने सब लोगों को एक ही लाइन बोली -सोने के ये दोनों पहाड़ आपके हैं, आप सभी अपनी जरूरत के मुताबिक इसमें से सोना ले लिया करें।इतना बोलकर कर्ण वहाँ से चला गया और मुड़कर देखा भी नहीं।श्रीकृष्ण जी ने कहा – देखा अर्जुन, दान इसे कहते हैं।कर्ण ने दान किया और भूल गया।क्योंकि कर्ण जानता है कि जो दान उसके द्वारा दिया जा रहा है, वो ईश्वर ही दिलवा रहा है।कर्ण तो सिर्फ एक माध्यम है जिसके द्वारा लोगों की उपयोगी वस्तु भगवान उन लोगों तक पहुँचा रहा है और इस बात को कर्ण अच्छी तरह से जानता है।कर्ण को अपनी प्रशंसा और बुराई से कोई फर्क नहीं पड़ता है।लेकिन अर्जुन तुम तो अपनी प्रशंसा के भूखे हो, खुद में अभिमान है कि “मैं” दान कर रहा हूँ।एक अहंकार है कि तुमसे बड़ा दानी कोई नहीं।तुम कर सकते हो, यह बात सही है।लेकिन सिर्फ तुम ही कर सकते हो, ऐसा सोचना गलत है।तुम्हें फल की इच्छा थी, तुमने दान किया और बदले में अपनी प्रशंसा का फल चाहते थे जो तुम्हें मिल गया।इसलिए तुम्हारे द्वारा दिये हुये दान को दान नहीं, सिर्फ एक सौदा कहा जायेगा।इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन का अहंकार तोड़ दिया।श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है -दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे।देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम्।। ( अध्याय 17 श्लोक 20)अर्थ – दान देना ही कर्तव्य है।इस भाव से जो दान योग्य देश, काल को देखकर ऐसे योग्य पात्र व्यक्ति को दिया जाता है,जिससे प्रत्युपकार की अपेक्षा नहीं होती है,वह दान सात्त्विक माना गया है।।इसलिए आप जब भी दान करते हों तो भागवत गीता के अध्याय 17 श्लोक 20 का अनुसार भाव रखें।


Forest.
Even a child knows how valuable the forest is. The fresh, breathtaking smell of trees. Echoing birds flying above that dense magnitude. A stable climate, a sustainable diverse life and a source of culture. Yet, forests and other ecosystems hang in the balance, threatened to become croplands, pasture, and plantations.