
संजय कालिया जालंधर (पंजाब)
हिंदी आज अपने प्रभाव से पूरे विश्व की नंबर एक भाषा बनने की ओर अग्रसर है। वाशिष्ठ भारती स्कूल दातारपुर में अनु शर्मा की अध्यक्षता में प्रबंधक कपिश शर्मा तथा प्रिंसिपल दिनकर पराशर ने कहा दुनिया भर में फैले लोगों में से लगभग 100 करोड़ से अधिक लोगों का हिंदी बोला जाना इस भाषा का विश्वजन समुदाय में निरंतर बढ़ते वर्चस्व का उदाहरण है।
उन्होंने कहा इतना ही नहीं हिंदी भाषियों में 1 अरब से ज्यादा लोग हिंदी लिखते, बोलते और समझते हैं। विश्वमंच पर आज इस भाषा का लोहा माना जा रहा है। परंतु अफसोस इस बात का है कि हिंदी ‘राजभाषा’ होने के बावजूद स्वदेश में तिरस्कृत है। यह बेहद शर्मनाक बात है कि अपने ही देश में अपनी ही राष्ट्रभाषा बोलने पर आपत्ति जताई जा रही है।
कपिश शर्मा, दिनकर पराशर तथा अनु शर्मा ने कहा कि दक्षिण भारत के नेताओं को किस संविधान ने अधिकार दिया है कि वे किसी भी नागरिक को हिंदी बोलने से रोक सकते हैं। यह तो सीधे-सीधे अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के अनुच्छेद (2), मौलिक अधिकार के अनुच्छेद 19(1) तथा अनुच्छेद 29 के अधिकारों का हनन है। उन्होने कहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी कहा करते थे हिंदी ना जानने से तो बेहतर है गूंगा ही रहना ज्यादा बेहतर है पूरे देश की बात छोडिये राजधानी दिल्ली में भी विश्वविद्यालय केवल अंग्रेजी माध्यम में व्याख्यान तथा अंग्रेजी का ही बोलबाला है।
उन्होंने कहां यह कैसी विडंबना है कि हिंदी को अपने ही देश में तिरस्कार सहना पड़ रहा है। राजभाषा को उसका सम्मान लौटाने के प्रयासों पर तो यह आत्मघाती हमला है ही। स्वदेश में हिंदी का विरोध अंसवैधानिक है। यदि ये नेता ‘भाषाई दादागिरी’ पर उतर आए तो वे यह क्यों भूल रहे हैं कि मुंबई के विकास की नींव में ‘हिंदी’ है। यदि हिंदी फिल्में मुंबई में न बनती तो मुंबई आज कहां होती? भाषाई हिटलरशाही सर्वथा अनुचित है।आज जरूरत हिंदी को भारत माता के भाल की बिंदी बनाने की है। आजादी प्राप्त किए आधी सदी बीत गई। हआज जरूरत हिंदी को भारत माता के भाल की बिंदी बनाने की है।
आजादी प्राप्त किए आधी सदी बीत गई। हमारे राष्ट्र के पाँवों में अंग्रेजी भाषा बेड़ी बनकर पड़ी हुई है। एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के नाम पर नौकरशाहों,पूँजीपतियों, पाश्चात्य उपभोक्तावादियों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपने स्वार्थ के लिए अँग्रेजी को ओढ़ रखा है।
यही कारण है कि एक बहुत बड़ा अभिजात्य वर्ग राष्ट्र के पाँवों में अंग्रेजी भाषा बेड़ी बनकर पड़ी हुई है। एक अंतरराष्ट्रीय भाषा के नाम पर नौकरशाहों, पूँजीपतियों, पाश्चात्य उपभोक्तावादियों और तथाकथित बुद्धिजीवियों ने अपने स्वार्थ के लिए अँग्रेजी को ओढ़ रखा है।
यही कारण है कि एक बहुत बड़ा अभिजात्य वर्ग राष्ट्र की मुख्यधारा से कटा हुआ है। जो व्यक्ति अपने घर, गाँव, गलियों, चौबारों और अपने परिवेश की भाषा नहीं जानता हो। वह सामाजिक उत्थान में अपना व्यवहारिक योगदान कैसे दे सकता है? इसलिए हमें हिंदी को बढावा देना चाहिए।